पोवार(36 कुरी पंवार) समाज का मध्यभारत/वैनगंगा क्षेत्र में आकर बसने का इतिहास



 पोवार(36 कुरी पंवार) समाज का मध्यभारत/वैनगंगा क्षेत्र में आकर बसने का इतिहास

आओ बचाये अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास को, और दे सच्ची श्रद्धांजलि अपने पूर्वजों को
सन् 1700 क़े आसपास हमारे पुरखों ने नगरधन(रामटेक क़े समीप) और वैनगंगा क्षेत्र में आकर, 36 क्षत्रिय कुलों क़े रूप में संगठित होकर नये युग की शुरुवात की।
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राजा भोज धर्मपरायण राजा थे और उनके शासन का आधार सनातनी धर्म था। उनके युद्ध भी धर्मयुद्ध होते थे और उनकी कोई स्थायी सेना न होकर, धर्म के लिए लड़ने वाले योद्धाओं का समूह था। यही वजह थी की उनकी, हर युद्ध में विजय होती थी। लेकिन चौदहवी सदी के शुरुवात में मालवा पर मुस्लिमों के आधिपत्य के बाद उनके वंशजों और सहयोगियों को कठिन वक्त से गुजरना पढ़ा।

मालवा पर मुस्लिमों के आधिपत्य के बाद उनके वंशजों और नातेदारों ने सैन्य समूह के रूप में दुश्मनों के विरूद्ध संघर्षों में अनेक राजाओं का सहयोग किया। कूछ अन्य दूसरे क्षेत्रों में जाकर भी बस गये। उनका एक बड़ा सैन्य जत्था अठारवी सदी में देवगढ़ राजा के अनुरोध पर नगरधन(रामटेक के पास) आया था जो बाद में वैनगंगा क्षेत्र में अपने परिवारों को इधर लाकर स्थायी रूप से बस गया था।

मालवा से आये हमारे पुरखे जिनमें मुख्य रूप से दिग्पाल सिंह बिसेन, तोमर सिंह टेभरे, शिवराम सिंह पारधी, कँगनसिंह पटले, विजयसेन तुरकर, मोती प्रसाद ठाकुर, सुमेरसिंह बघेल, धीरसिंह बिसेन, भूपसिंह रहाँगडाले, राजसिंह रहाँगडाले, डूगरसिंह पटले, कुंजराज कटरे, नारूजी रहाँगडाले, कोलारी सिंह ठाकुर आदि के द्वारा मध्यभारत में सैन्य समूहों का नेतृत्व किया किया था। ये हमारे वे पुरखे हैं जिन्होंने लगभग सवा तीन सौ वर्ष के आसपास पोवार समाज क़े इस क्षेत्र में सामाजिक ताने-बाने की नीव रखी। इनकी अपने मूल क्षेत्रों से लंबी दुरी होने के कारण अपने पुरखों के क्षेत्रों से संपर्क कम होता गया और क्षत्रियों का यह समूह इधर एक स्वतंत्र जाति के रूप में अस्तित्व में आया जिसे आज क्षत्रिय पोवार या छत्तीस कुल पंवार के नाम से जाना जाता हैं।

इतिहास में वर्णित हैं क्षत्रियों(राजपूतों) के 36 कुल थे और पंवार/पोवार समाज के भी छत्तीस कुल थे। छत्तीस वास्तव में एक आदर्श संख्या थी जिसमें अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग-अलग कुलों के नाम दिए हैं। इसी आदर्श के अनुरूप पंवारों के 36 कुल होने का इतिहास में उल्लेख मिलता हैं। नगरधन-वैनगंगा क्षेत्र में आये राजपूतों ने भी पंवारों के नेतृत्व में अपने नातेदारों के संग छत्तीस क्षत्रियों के संघ को कायम रखने का प्रयास किया, ताकि अपने सामाजिक ताने-बाने और संस्कृति को नये क्षेत्र में भी कायम रख सके।

वैसे तो राजा भोज के भतीजे लक्ष्मणदेव पंवार ने 1104 में नगरधन आकर मध्यभारत में शासन किया था, इसीलिए शदियों के बाद आये उनके वंशजो के लिए यह क्षेत्र अजनबी नही था। उस समय के कितने पंवार, मध्यभारत में स्थाई रूप से बचे इसका कोई विशेष इतिहास नही मिलता और अधिकांश इतिहास में 1700 के आसपास आये लगभग चार हजार पोवार सैन्य समूहों के वंशज, आज के वैनगंगा क्षेत्र के पंवार/पोवार ही हैं। हमारे इन पुरखों ने अपने इस समुदाय के लिए जो सामाजिक मानदंड तैयार किये थे वे 322 वर्ष के बाद भी आज यथावत् हैं।

इतिहास में पोवारों के छत्तीस कुल होने का उल्लेख मिलता हैं लेकिन संभवतया कूछ कुल युद्ध के बाद अपने क्षेत्रों में चले गये होंगे इसीलिए आज मध्यभारत में पोवारों के 31 कुल ही स्थायी रूप में बसे मिलते हैं। पुरखों की बनाई परम्पराओं के अनुरूप आज भी ये कुल समाज की सामाजिक रीति-रिवाजों के आधार हैं।

अठारवी सदी के शुरुवात में हमारे पूर्वजो ने अपने जिस सामाजिक ताने-बाने और परम्पराओं को बनाया हैं वह आज हमारी विरासत हैं और इसी में उनके पुरखों की हजारों वर्षों की संस्कृति का समावेश हैं। समाज की मातृभाषा, पोवारी इस संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग हैं जिसके भाषाई स्वरूप के अध्ययन से समाज के विस्थापन का इतिहास मिल जाता हैं। निश्चित ही इस नये क्षेत्र में आकर हमारे पुरखों ने बहुत ही सोच समझकर सामाजिक मानदंडो और रीति-रिवाजों को बनाया होगा, जिसको बनाये रखना और आगे पीढ़ीयों को यथावत सौंपना उनके वंशजों का दायित्व हैं और किसी को कोई हक नही बनता की इस सामाजिक ताने-बाने से छेड़छाड़ करें।

आज भी हम अपनी इस विरासत पोवारी संस्कृति को देखें तो यह मूल रूप से सनातनी संस्कृति के अनुरूप हैं और मराठा काल, ब्रिटिश काल और आजाद भारत के दस्तावेजों, जनगणना रिपोर्ट्स, शासकीय रिपोर्ट्स, भाट की पोथी सहित सामाजिक विचारकों के लेखों में इसका स्पष्ट उल्लेख मिल जाता हैं।

पोवार समाज के सामाजिक ताने-बाने को बुनने में सैकड़ों वर्ष लग गये और हर समस्यायों का सामना करते हुये हमारे पुरखों ने इसे बनाये रखा। हालांकि आने के 260 वर्षों के बाद कूछ लोगों और सामाजिक समूहों ने इस अमूल्य सांस्कृतिक विरासत में छेड़छाड़ की कोशिश की और कूछ लोग आज भी यह करने का प्रयास कर रहें हैं, लेकिन बहुसंख्यक समाज के अपने पुरखों के आदर्शो को यथावत रखा हैं और इसे आगे भी यथावत रखना हर किसी की जिम्मेदारी हैं।
आज हमारे समाज का सामाजिक स्वरूप, पोवारी के कुलों के आधार पर निर्धारित होता हैं जिसे पुरखों ने आज से तीन सौ से अभी अधिक वर्ष पूर्व तैयार किया। सन् 1760 तक लगभग पूरा समाज वैनगंगा क्षेत्र में बस गया था और उन्होंने अपने समाज का स्वरूप और दिशा निर्देश तय कर दिया था। अब उसमें स्वार्थपरक तत्वों के द्वारा 260 वर्षों के बाद कोई छेड़छाड़ नही किया जाना चाहिए नही तो समाज की ऐतिहासिक पहचान और अस्तित्व को खोने का खतरा हो जायेगा। संस्कृति का विलोपन समाज को पतन की ओर लें जा सकता हैं, इसीलिए पुरखों की विरासत को चंद लोगों के 1965 के प्रस्ताव या आगे के मंचों पर घोषणाओं से नही बदल सकते।

गौरवशाली इतिहास और नाम को मिटाकर हमें उन पुरखों का अपमान नही होने देना हैं जिन्होंने बड़ी सिद्दत से पोवारों की सामाजिक विरासत और संस्कृति बचाया, बनाया और आगे बढ़ाया।
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ऋषि बिसेन, बालाघाट

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