पोवारी संस्कार - संस्कृति


 पोवारी संस्कार - संस्कृति

बोहुत डाव प्रश्न उठसेत का नवि पीढी पोवारी संस्कार - संस्कृति भूलत जाय रही से।

पहिलो प्रश्न मनजे संस्कार अना संस्कृति मनजे काहाय?

(१) धार्मिक कहो या आध्यात्मिक संदर्भ मा जहां वरी मोला मालुम से  वैदिक काल पासुन संस्कार ईन ला महत्व देई गई से। संस्कार वेद ईन मा अना स्मृति ईनमा देया गया सेत, उदाहरण क तौर पर - १६ संस्कार, गर्भधान पासुन त अंतिम संस्कार वरी। पर पोवार समाज मा मोजकाच संस्कार पालकन होसेत.

पुढ् कही गई से का जहां संस्कार वहां संस्कृति। मनजे जब् मानुस संस्कार पालसे संस्कारित होसे, तब् वोको जीवन मा संस्कृति को जनम होसे।

(२) सामान्य लोक  नहान ईनन् मोठो ईनका पाय लगन, पाहुना इन ला पाय धोवन पानी देनो, प्रणाम करनो, मोठो ईनको तोंड ला तोंड नही देनो, मान देनो सारखो व्यवहार ला संस्कार कसेत।

(३) काही जाग् पाहट् उठनो, तोंड धोवनो, पूंजा करनो, श्लोक वा आरती करनो, बिंद्राबन ला पानी चढावनो, जेवन को पहिले ठाव का पाय लगनो, आगी मा नैवद्य होम करनो, ठावपरलका उठन को बेरा  ठाव का पाय लगनो वगैरे आचरण ला संस्कार कसेत।

(४) घर परिवार मा अनुशासन, मान मर्यादा ला बी आमि संस्कार लेख् सेजन त कबी आपल् करतव्य की जानीव ला बी संस्कार मान् सेजन। जसो बायको आपलो नवरा को नाव नही लेत होती, पहिले जेवत नोहती, डोई पर सेव को ध्यान ठेवत होती, जेठ क चेहरा परनजर जात नोहती वगैरे वगैरे।यनच दायरा मा, जब् बिह्या जोडने की बेरा आवसे तब् टुरा टुरी का अना उनको परिवार का संस्कार लोक परख् सेती अना मंग बिह्या जोड् सेती।

(५) कबी कबी आमि परम्परागत रुढी, रीतिरिवाज ईनला बी संस्कार कसेजन, त कबी कपरा लत्ता पेहरन, सेव, पदर, लुगडा, साडी, फॅशन ला बी संस्कार संग् जोड् सेजन। कबी कबी दारु नशा बी संस्कार संग् जुड्या जासेत। त कबी मातृभाषा ला बी संस्कार संग् जोड् सेजन।

कसेत संस्कार जुनी पीढी पासुन नवी पीढी मा जासेत अना धरम, वर्ण, जाति, सिक्सन, निवास क्षेत्र, सहवास, काल  वगैरे पर बोहुत काही निर्भर रव्हसेत। एकोच अर्थ का आजा-आजी माय-बाप ला संस्कार देसेत अना मा़य-बाप बेटा-बेटी ला।

अजकाल आमि बोंब मार् सेजन का नवी पीढी संस्कार भूल रही से, दूर जाय रही से, बेबंड होय रही से। पर जरा बिचार करो का यको मंघ् कारण का से। कारणीभूत से जूनी पीढी ज्या कर नही सकी संस्कारित आपलो नवी पीढी ला! खुद बी बिगड्या ना नवी पीढी ला बी बिगडनो को रस्ता पर ढकलिन!!


सन्दर्भ: डॉ ज्ञानेश्वर टेंभरे को लिखित लेख

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