पोवारी

पोवारी    
                                     
    पंवार परमार पँवार पोवार कहलाने वाले चार देशो में बसे है ! और अनेक जातियों में धर्मो में समाहित हो चुके है ! कइयो की अपनी कोई भाषा नही है ! हम ३६ कुल वालो की जाती पंवार या पोवार है और हमारी बोली का नाम पोवारी है और वह विशिष्ट ! हमने अपनी बोली , जाती वही बनाकर रखी जो पहले से है ! पोवारी गुजराती , राजस्थानी , मालवी , बुन्देली , बघेली , संस्कृत , हिंदी , डिंगल , पिंगल , प्राकृत आदि भाषाओ का मिलाजुला स्वरुप है ! 

    यह भाषा विशेषतः हमारे ३६ कुल के पूर्वजो ने समय व् स्थान के अनुसार संवर्धित की है ! वह अन्यो से साम्यता नही रख सकती क्योंकि हमारा इतिहास , स्थानान्तरण का समय , स्थान सब अन्यो से अलग है ! ग्वालियर के पास काफी पंवार है जो पंवारी बोलते है परन्तु वह भी हमसे थोड़ी अलग है ! इसके लिए आपको भारत का पहला भाषा सर्वे पढना होगा ! उसमे सब स्पष्ट रूप से लिखा है की पोवारी मालवा से पोवारो या प्रमारो की बोली है !

    भाषा समय व् स्थान के साथ बदलती है ! इसका उदाहरण आप अपनी तीन चार पीढ़ी में ही समझ सकते है ! आज आपके बच्चे हिंगलिश बोलने लगे है ! हम लोगो के दादा दादी पोवारी बोलते थे ! राजा भोज पोवार समाज के थे यह इतिहास में लिखा है ! उनके समय  जनभाषाओ के रूप में प्राकृत , डिंगल , पिंगल,  मागधी , मालवी प्रचलन में थी ! पोवारी उसी का वर्तमान रूप है ! हालाकि उसमे कुछ बदलाव आया है ! राजा भोज के १५०  साल बाद लिखे  रासो जैसे  काव्य ग्रन्थ पढने पर चलता है की वे सब भाषा पोवारी की तरह ही है ! राजा भोज ने साहित्य लेखन संस्कृत में किया है  , उन्होंने संस्कृत का काफी प्रचार किया ! कुछ प्राकृत साहित्य भी लिखा ! परन्तु जन समुदाय में संस्कृत उतनी  प्रचलित नही हो पायी ! राजा भोज उससमय पोवारी जिससे परिवर्तित हुयी वह भाषाये बोलते थे

 हमारी पोवारी भाषा गुजराती से ज्यादा मिलती है ! गुजराती से पोवारी  भाषा को मिलाके देखे आपको साम्यता मिलेगी ! गुजरात व् राजस्थान के सीमा क्षेत्र में पोवार १६६५ के पहले रहे है  इसलिए  मालवी व् राजस्थानी मारवाड़ी शब्द पोवारी में है ! पिछले 300 सालो में निश्चित तौर पर कुछ फर्क हुआ है ! पोवारी पर मध्य भारतीय स्थानीय भाषाओ का असर भी पड़ा है ! कोई भी भाषाओ का विश्लेषण से समझ सकता है !

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