पोवार समाज और भोयर समाज के एकिकरण का इतिहास और इसका विश्लेषण

 पोवार समाज और भोयर समाज के एकिकरण का इतिहास और इसका विश्लेषण

1961 में भोयर समाज के प्रतिनिधि, समाज से पूर्व सांसद स्व भोलाराम जी पारधी से मिलने उनके निवास पर आये थे कि कैसे उनके और पोवार समाज के बीच एकता बढ़ाई जाए।

इसके बाद पोवार समाज के कुछ संगठनों के लोगों की बैठक हुई और पोवार समाज के तरफ से एक समिति का गठन हुआ। इस समिति को कार्य दिया गया कि पुरातन दस्तावेज, जिल्हा गैज़ेट आदि का अध्ययन कर यह तथ्य प्रस्तुत करें कि पोवार समाज और भोयर समाज का इतिहास मिलता है या नही। 

इस तरह के एकीकरण की सर्वसमाज को कोई जानकारी नही थी और न ही गांव गांव जाकर इस विषय पर कोई चर्चा की गई थी। 1965 में एक छोटे से गांव मेंढा में एक सम्मेलन हुआ जिसमें सिर्फ एक संस्था के गिने चुने लोग ही शामिल हुए थे क्योंकि यह बैठक ही तिरोड़ा से काफी अंदर एक छोटे से गांव में हुई ताकि जनसामान्य पंहुच ही न सके। उस समय न तो यातायात के पर्याप्त साधन ने और न ही संचार के, इसीलिए इस अधिवेशन में समाज से आम जनता पहुँच ही नही सकती थी। 

कुछ बुजुर्ग बताते हैं कि पोवारों के साथ भोयर समाज के एकीकरण का उन्होंने व्यापक विरोध किया था और इसीलिये यह अधिवेशन उस जगह हुआ जहाँ कोई आ ही न सके। इसके अतिरिक्त समिति के द्वारा इन दोनों समाजों के इतिहास की खोज की ही नही गयी। अगर खोज होती तो निश्चित तौर पर यह सत्य सामने आ जाता कि दोंनो समाजों में अतीत में कहीं भी कोई संबंध नही थे और एकीकरण जैसी कोई बात इस बैठक में आती ही नही। 

सभी जिला गैज़ेट, रिपोर्ट्स, जनगणना सम्बंधित दस्तावेजों में दोनों समाजों का इतिहास, संस्क्रति, बोली, रीति-रिवाज पूरी तरह से अलग-अलग है फिर भी कुछ लोगों की अपनी मर्जी से दोनों समाजों में एकता शुरू करने का प्रस्ताव पास हुआ। हालांकि इसमें पोवार/पंवार समाज का नाम बदलने या रोटी-बेटी शुरू करने जैसे कोई प्रस्ताव नही थे। भोयर समाज ने खुद को पवार लिखने का प्रस्ताव पास किया था और वे अपनी बोली भोयरी को पवारी लिखने लगे थे। सन 2000 के बाद पोवारों में भी पवार शब्द को बढ़ावा दिया गया ताकि दोनों समाजों के पुरातन नामों की जगह एक नाम पवार और दोनों समाजों की बोलियों के नाम भोयरी और पोवारी को एक नाम पवारी से लिखेंगे। ऐसी तुगलकी सोच वाले लोग भूल गए कि इतिहास कभी नही मिटता और उनको यह अधिकार किसने दिया कि वो समाज के पुरातन नामों का बदल कर दूसरे समाजों से एकिकरण के लिए गलत इतिहास लिखेंगे। समाज को पूरी तरह से सच जानना चाहिए फिर समाज खुद निर्णय लेगा की उसको अपने वैवाहिक संबंध किससे करने है। आधुनिकता के नाम पर समाज के पुरातन नामों को नही बदला जा सकता। 

अपभ्रंषित नामों से कविता लिखने, किताब लिखने, कैलेंडर बाटने से समाज का नाम बदलने के सपने देखने वालों को यह समझना होगा कि वे अपने इस घ्रणित प्रयास में कभी सफल नही होंगे। पोवार समाज अपने पूरखों के नाम को कभी नही छोड़ेगा और न ही दूसरे समाजों से विलीनीकरण के नाम पर अपनी बेटियों का कोई सौदा कर रोटी-बेटी जैसी कोई शर्त को स्वीकार करेगा। समाज को अपनी अस्मिता बचाने की समझ है। हमारे पुरखों ने सैकड़ो वर्षों से कई स्थान बदले पर अपनी पहचान, अपने नाम और अपनी संस्कृति को नही छोड़ा तो क्या ये चंद राजनीतिक लोग समाज की गरिमा को धूमिल कर पाएंगे, नही कभी नही। पोवारों को ऐसे स्वार्थी तत्त्वों से निपटना बहुत अच्छे से आता है और समाज अपनी पहचान, अपनी संस्क्रति और अपने नामों को कभी नही छोड़ेगा।

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