पोवारी संस्कृति और छत्तीस कुल का क्षत्रिय पोवार(पंवार) समाज
पोवारी संस्कृति और छत्तीस कुल का क्षत्रिय पोवार(पंवार) समाज संस्कृति का विकास कोई एक पल का काम नहीं है इसीलिए इसका संरक्षण और संवर्धन बहुत जरुरी होता हैं। संस्कृति का पतन समाज के नैतिक मूल्यों का पतन है और कितनी भी भौतिक समृद्धि आ जाये पर वास्तविक समृद्धि तभी कही जाएगी जब सांस्कृतिक और भौतिक समृद्धि का समुचित समन्वय हो। ऐतिहासिक पोवारी संस्कृति, जो आज भी हमारे गांव और दिलों में हैं, को समाज के हर व्यक्ति तक पहुँचाना होगा तभी हम आने वाली पीढ़ी को सनातनी पोवारी संस्कृति से परिचित करा पाएंगे। मालवा राजपुताना से अठाहरवीं सदी के आरम्भ में आये छत्तीस क्षत्रियों में से बालाघाट, भंडारा, सिवनी और गोंदिया जिलों में तीस कुल ही स्थायी रूप बसें और बाकी के छह कुल संभवतया युध्द के बाद वापस चले गए हों। पोवारों उनके कुलों का बहुत महत्व होता है और इनके विवाह पोवारों के अपने कुलों अम्बुले, कटरे, कोल्हे, गौतम, चौहान, चौधरी, जैतवार, ठाकुर/ठाकरे, टेम्भरे, तुरकर/तुरुक, पटले, परिहार, पारधी, पुण्ड/पुंडे, बघेले/बघेल, बिसेन, बोपचे, भगत, भैरम, एडे, भोयर, राणा, राहांगडाले, रिणायत, शरणागत, सहारे, सोनवाने, हनव